Thursday, September 6, 2012

आओ इस पल का जश्न मनाएं

बात करें उम्मीदों की और आस का अलख जलाएँ
देखें बहती नदियों को और बादल के रंग नहायें
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

ऊँचे पर्वत और ताड़ वृक्ष सब तन के सीना रहते हैं
छोटी चिड़िया और हरी  घास सब मधुर गीत ही गाते हैं
आओ इनकी वाणी के संग हम भी जीवन रस मैं घुल जाएँ 
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

सर्दी गर्मी और नम को घोले अदृश्य हवा क्यूँ बहती है
इसको और उसको भी संग लेके एक भाव से रहती है 
तो फिर हम क्यों दंभ भरें और भेद का स्वांग रचाएँ
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

रंगों को देखोगे तो समझोगे वो आपस में  मिल जाते हैं
गिनती में हैं बस सात रंग पर कितने भी बन जाते है
हम क्यूँ न रंगों के जैसे एक दूजे की धड़कन बन जाएँ
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

मिटटी की सौंधी खुशबु देखो हमसे कुछ कहने आती है
पानी की हलकी बूंदें  जब उसके मन को छू जाती हैं
हम भी अपने मन को सीचें और पवन पुण्य बनायें
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

 एक छोटा सा गीत भी गाकर मन सुन्दर बन जाता है
सच तो यह है मन सुन्दर यह इश्वर के मन भाता है
तो क्यूँ न हम सब भी  अपने इश्वर के मन भायें
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

 नभ में  बिखरे नन्हे तारे जब मंद मंद मुस्काते हैं
घनघोर अमावस के अंध को कुछ तो दूर भागते हैं
हम भी अपना थोडा सा देकर बड़ा सवेरा ले आयें
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

माँ का मैला आँचल भी बच्चे को जन्नत लगता है
वो झीना झीना कपड़ा भी बच्चे को अम्बर लगता है
हम  क्यूँ ना माँ के जैसे निस्वार्थ भाव की प्रीत जगाएं
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।

सूरज की किरणे धरती पर सोने सी बिछ जाती हैं
है नहीं कोई छल उनके मन में  अगले दिन फिर आती हैं
हम भी अदम्य भरोसे वाली नयी पंक्तियाँ रच जाएँ
आओ इस पल का जश्न मनाएँ ।


दीपक  अन्जान ........

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