Sunday, March 17, 2013

सेक्स की उम्र से जरूरी सवाल एक सक्षम समाज का

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सेक्स की उम्र से जरूरी सवाल एक सक्षम समाज का
दिल्ली और मुंबई के रेडलाइट एरिया में हजारों नाबालिग लड़कियां देह व्यापार को विवश हैं, उनमें से बहुत सी तो 10-12 साल की कच्ची उम्र में ही इस दलदल में झोंक दी जाती हैं, क्योंकि उनकी उम्र और माहौल उन्हें स्वेच्छा या सहमति का मतलब समझने का अवसर ही नहीं देता...

 दीपक वर्मा 

आजकल संसद से लेकर चौपालों तक में शायद इसी बात पर चर्चा हो रही है कि क्या सहमति से सेक्स की उम्र 16 करने का प्रस्ताव सही दिशा में उठाया गया कदम है? जिस देश में मनपसंद वर अथवा वधु का चुनाव करने की उम्र अठारह साल है, यहाँ तक कि राजनीतिक मत प्रकट करने की भी यही उम्र सीमा 18 है, वहां सहमति से सेक्स की उम्र 16 करने का सरकारी प्रस्ताव बहुत सी रूढिगत मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाता प्रतीत होता है. अगर यह नियम पारित हुआ, तो समाज की संरचना का बदलना तय है.
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गौर करने वाली बात यह है कि भारत में लिव-इन अर्थात स्त्री पुरुष के बिना विवाह साथ रहने के अधिकार को पहले ही मान्यता मिल चुकी है. हालाँकि सेक्स की उम्र 16 करने की मंजूरी केन्द्रीय कैबिनेट ने तो दे दी है, पर इसे 22 मार्च को संसद में पेश होना और सभी पार्टियों की सहमती मिलनी अभी बाकी है. लेकिन समाज के हर तबके में इस मसले पर बहस जारी है और लोग इस कानून को लेकर उम्मीदों-आशंकाओं से भरे हुए हैं. 
सेक्स की प्रस्तावित उम्र के बारे में भारत के मेट्रोपोलिटन शहर बैंगलुरु में रहने वाले बुजुर्ग रामवीर कहते हैं, 'धार्मिक मान्यताओं, पाप-पुण्य और शालीनता से समाज को नियंत्रित किया जाना चाहिए और ऐसी अराजक मांग को कभी पूरा नहीं किया जाना चाहिए. 16 में सेक्स शास्त्र विरोधी है और ऐसा हुआ तो समाज गर्त में जायेगा.'

सेक्स और शास्त्र के मद्देनजर बैंगलुरु के ही एक मंदिर में पूजा करने वाले पंडित सुधीर बताते हैं, 'हिन्दू धर्म में तो पहले से ही गन्धर्व विवाह का चलन है. जहाँ कहीं भी गन्धर्व विवाह का उल्लेख मिलता है, वहां किसी भी वयस्क महिला या पुरुष को सहवास की स्वतंत्रता है. परन्तु उन्होंने यह भी कहा की अंग्रेजी में सेक्स और हिंदी के सहवास में बहुत अंतर है. जहाँ एक ओर सेक्स उन्मुक्तता का प्रतीक है, वहीँ सहवास का आशय साथ-साथ रहने और जिम्मेदारियां उठाने से है.'

पंडित सुधीर के अनुसार 'सहवास बहुत कुछ आजकल प्रचलित लिव -इन परंपरा का विशुद्ध रूप है. दोनों में केवल इतना अंतर है क़ि जहाँ लिव -इन परंपरा बिना विवाह साथ रहने और सेक्स करने तक सीमित है, वहीँ गन्धर्व विवाह साथ-साथ जीवन रस का आनंद लेने और विकास करने का मार्ग था. अंग्रेजी के 'लिव-इन' को अगर 'लाइव-इन' के रूप में परिभाषित किया जाये तो यह बहुत हद तक गन्धर्व विवाह जैसा होगा.' शास्त्रों के ज्ञाता पंडित सुधीर ने चौदह वर्ष को शास्त्र सम्यक वयस्क उम्र बताया. शास्त्रों के अनुसार इस उम्र के बाद चुनाव की स्वतंत्रता है.

इंसानों के लिए वयस्क शब्द की जीववैज्ञानिक परिभाषा को लेकर डॉक्टर राहुल कहते हैं, 'मेडिकल साइंस तेरह से पंद्रह वर्ष की लड़कियों और सोलह से अठारह वर्ष के लडकों को उनके हार्मोन जनित शारीरिक परिवर्तनों के आधार पर वयस्क बताता है. लड़कियों में मासिक धर्मं की शुरुआत औसतन तेरह वर्ष की उम्र में हो जाती है. मासिक धर्म शुरू होने का मतलब है लड़की का शरीर वयस्क होने की तैयारी में होता है. सोलह वर्ष की उम्र तक यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है.' 

वैसे तो प्रकृति खुद स्त्री-पुरुष की परिभाषा गढ़ने में सक्षम है. सोलह साल की उम्र में लड़का या लड़की शारीरिक रूप से यौन संबंधों के लिए तैयार हो जाते हैं. हमारे समाज में सोलह वर्ष की अवस्था को वयस्क ही माना गया है. आज भी चोरी-छुपे बाल विवाह हो रहे हैं. 

अमेरिका जैसे देशों में जहाँ सेक्स उन्मुक्क्त है और लोग विवाह उम्रदराज होने के बाद ही कर रहे हैं, अनेक पारिवारिक एवं वैवाहिक समस्याए मुंह बाए खड़ी हैं. कवियों ने भी प्रेम की उम्र को सोलह ही माना है.यही वो उम्र है जब दिल किसी का हो जाना चाहता है या किसी को अपना बना लेना चाहता है.

मगर इसके उलट दूसरा पक्ष कहता है कि प्रेम केवल सेक्स की तैयारी की अवस्था है, परिपक्वता की नहीं. एक लड़की के लिए यह अवस्था संतानोत्पत्ति के लिहाज से अधिकांशतः जानलेवा होती है. वहीं इस उम्र का व्यक्ति भावनात्मक रूप से सुगठित भी नहीं होता. ऐसे में उसे सेक्स का अधिकार देना बन्दर के हाथ में उस्तरा पकड़ाने जैसा है. हमें यह भी नहीं भुलना चाहिए कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है, जहाँ सरे आम इस तरह के अधिकार प्रदान करना व्यभिचारियों की लोलुपता बढ़ाएगा. 

आज के समाज में दिनोंदिन बढती जा रहीं बलात्कार और उत्पीड़न की घटनाएं साफ़ तौर पर दिखाती हैं कि किस तरह पुरुष समाज लड़की के पैदा होते ही उस पर गिद्धदृष्टि जमाये रखता है. ऐसे समाज में सेक्स की उन्मुक्तता और उम्र सीमा के रूप में दी गयी छूट क्या इस वीभत्सकारी विचार को और पुख्ता नहीं कर देगी? दिल्ली और मुंबई के रेडलाइट एरिया में हजारों नाबालिग लड़कियां देह व्यापार को विवश हैं, उनमें से बहुत सी तो 10-12 साल की कच्ची उम्र में ही इस दलदल में झोंक दी जाती हैं, क्योंकि उनकी उम्र और माहौल उन्हें स्वेच्छा या सहमति का मतलब समझने का अवसर ही नहीं देता.

जिस देश में खस्ताहाल शिक्षा आज भी लाखों युवाओं को मानसिक रूप से परिपक्व नहीं बना पा रही है और जहाँ सोलह साल के अधिकांश युवा मानसिक तौर पर शायद दस साल के कान्वेंट एजुकेटेड बच्चे की बराबरी करने मैं अक्षम हैं, जिस देश में आज भी यौन शिक्षा मात्र किताबों तक सीमित है, वहां इस तरह के अनर्थक प्रस्तावों पर विचार महज कुछ बुद्धिजीवियों का उम्दा मनोरंजन ही कर सकता है.

इसमें कोई दो राय नहीं की समाज बदल रहा है और बदलते समाज के साथ नियमों और परम्पराओं का बदलना भी लाजिमी है. पर यह भी याद रखना जरूरी है क़ि इस परिवर्तन की हम क्या कीमत चुकायेंगे? कोई भी परिवर्तन अकेला नहीं आता, अपने साथ परिवर्तनों की एक पूरी श्रृंखला लाता है.

बात उम्र की बिलकुल नहीं है. गाँधी जैसे महापुरुष का विवाह भी कम उम्र में हुआ था. प्रेम और सेक्स को नियमों तथा उम्र सीमा में बांधने का कोई विचार आज तक किसी देश या किसी काल में सफल नहीं हुआ. यह नियम भी अगर पारित हुआ तो केवल एक कागजी नियम बनकर रह जायेगा. 

फिलहाल भारत सरकार को चाहिए कि वो वयस्क पारिभाषित किये जाने योग्य उम्र सीमा तय करे और विचार करे कि एक वयस्क को इस देश में क्या-क्या अधिकार दिए जा सकते हैं. इस तरह तो सेक्स आधारित नियम समाज को सही दिशा देने की बजाय भ्रमित भी कर सकते हैं.

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