मैं चश्मा लगता हूँ. बचपन से ही.शायद कक्षा तीन में पढ़ता था कि एक गोल सा चश्मा , मोटे लेंस और उससे भी ज्यादा मोटे और भद्दे फ्रेम वाला चश्मा जो कभी कभी मुझे खुद से भी भारी लगता था मेरी नाक पर सवार हो गया. मुझे पहली बार तब ही लगा कि काश मैं जानवर होता ,क्यूंकि वो चश्मा नहीं पहनते और न ही कोई जबरजस्ती उनसे पहनने को कहता है .
उस समय का समाज चश्मा पहनने वाले बच्चों को बड़ी नीची निगाह से देखता था . कई लोग मुझसे पूछते थे कि इतनी कम उम्र में मुझे चश्मा कैसे लग गया ? जैसे कि इसमें मेरी ही कोई गलती हो . कुछ मुझसे उत्सुकतावश पूछते कि इसे उतार दो तो क्या तुम्हें कुछ भी नहीं दिखेगा? कुछ बच्चे चिड़ाते थे और कुछ चश्मा ही छीन कर भाग जाते थे.
खैर इन लड़ाइयों में कई चश्मे शहीद हुए , कई झूट घर पर बोले गए .
चश्मा पहनने का शुरुआती अनुभव कुछ अच्छा नहीं था . नाक कि हड्डी दुखती थी और काले लाल रंग के मिश्रण वाले दो निशान भी अपनी जगह बना चुके थे पर उससे ज्यादा अवसाद दिल में था . पर एक फायदा भी था चश्मा पहनने वाले लोगों को पढ़ाकू और शरीफ समझा जाता था। चश्मे ने जहाँ कई बार इज्जत का फालूदा बनाया वहीँ कई बार इज्जत बचाई और बढाई भी. चश्मे वाले बच्चों को मास्टर जी भी धीमे से ही मारते थे . शायद उन्हें लगता था कि चश्में वाले बच्चे भी चश्मे के कांच की तरह ही कमजोर और दुर्बल ही होते हैं।
आज चश्मे ने समाज में अपनी जगह बना ली है और मेरे साथ भी चश्मे से जुडी समस्याएँ ख़त्म हो गयी हैं सिवाय एक के !! मेरा चश्मा कभी-कभी खो जाता है और एक आँख मिचौली का खेल शुरू हो जाता है मानो मेरा चश्मा कह रहा हो खोजो मुझे ! अगर इस दुनिया को दुबारा रंगीन और हँसता हुआ देखना चाहते हो तो हिम्मत करो धुंडने की ! कभी टेबल पर , कभी बाथरूम में, कभी किचेन और कभी पेंट की जेब में मिलता है तब सोचता हूँ कि कितनी अजीब बात है कि मुझे दुनिया दिखाने वाली यह चीज खुद इतनी पारदर्शी और छोटी सी है कि बिना इसके इसे खोजना भी मेरे लिए सजा है .
चश्मा पहनने के मेरे निजी अनुभव यही हैं कि चश्मा नजर तो बदलता है मगर नजरिया नहीं . महात्मा गाँधी का चश्मा आज भी बेबस संग्रहालयों में दम तोड़ रहा है पर हमारे समाज की विडम्बना ही है आज भी उस चश्मे के पीछे वाली चमत्कारी आँखें हमारे पास नहीं हैं. आज किसी सत्ताधारी के पास वो चश्मा नहीं जो डूबता देश देख सके और उससे बचा सके . आज किसी माँ- बाप के पास वो चश्मा नहीं जो अपने बच्चों के संस्कार देख सके और इन सबसे बढकर किसी पुरुष के पास वो चश्मा नहीं जो किसी महिला को साफ़ नीयत से देख सके .
बिना चश्मों वाले इस विकृत समाज को न देख पाने का दुःख मुझे नहीं है अच्छा तो ये है कि मेरा चश्मा खो ही जाय !!
सारा समाज आज निकट दृष्टि दोष से ग्रसित है और उसे दूरदर्शी बनाने के लिए चश्मा पहनाना बहुत जरूरी है . न्यापालिका की काली पट्टी खोलकर उसे भी एक चश्मा लगाना जरूरी है . पुलिस जो नपुंसकता की दहलीज पार कर चुकी है उसे भी एक चश्मा लगाना जरूरी है .
मेरे इश्वर हमें कोई ऐसा चश्मा दो जो अपने अन्दर देखने कि कला विकसित कर सके. कोई ऐसा चश्मा जो सच को झूट से अलग कर दिखा सके , एक ऐसा चश्मा जो नजर के साथ साथ नजरिया भी बदल दे . आज संसद से लेकर समाज तक में सब लोग एक दुसरे के चश्मे फोड़ने में लगे हैं। ना जाने कितने मजबूर लोगों के रंगीन चश्मे फर्श पर टूटे हुए पड़े हैं और उन टूटे काँच के टुकड़ों से घायल इन पैरों के घाव देखने के लिए इस समाज के पास कोई चश्मा नहीं.
आधुनिकता मैं अंधे इस समाज को एक चश्मा पहनना बहुत जरूरी है।
उस समय का समाज चश्मा पहनने वाले बच्चों को बड़ी नीची निगाह से देखता था . कई लोग मुझसे पूछते थे कि इतनी कम उम्र में मुझे चश्मा कैसे लग गया ? जैसे कि इसमें मेरी ही कोई गलती हो . कुछ मुझसे उत्सुकतावश पूछते कि इसे उतार दो तो क्या तुम्हें कुछ भी नहीं दिखेगा? कुछ बच्चे चिड़ाते थे और कुछ चश्मा ही छीन कर भाग जाते थे.
खैर इन लड़ाइयों में कई चश्मे शहीद हुए , कई झूट घर पर बोले गए .
चश्मा पहनने का शुरुआती अनुभव कुछ अच्छा नहीं था . नाक कि हड्डी दुखती थी और काले लाल रंग के मिश्रण वाले दो निशान भी अपनी जगह बना चुके थे पर उससे ज्यादा अवसाद दिल में था . पर एक फायदा भी था चश्मा पहनने वाले लोगों को पढ़ाकू और शरीफ समझा जाता था। चश्मे ने जहाँ कई बार इज्जत का फालूदा बनाया वहीँ कई बार इज्जत बचाई और बढाई भी. चश्मे वाले बच्चों को मास्टर जी भी धीमे से ही मारते थे . शायद उन्हें लगता था कि चश्में वाले बच्चे भी चश्मे के कांच की तरह ही कमजोर और दुर्बल ही होते हैं।
आज चश्मे ने समाज में अपनी जगह बना ली है और मेरे साथ भी चश्मे से जुडी समस्याएँ ख़त्म हो गयी हैं सिवाय एक के !! मेरा चश्मा कभी-कभी खो जाता है और एक आँख मिचौली का खेल शुरू हो जाता है मानो मेरा चश्मा कह रहा हो खोजो मुझे ! अगर इस दुनिया को दुबारा रंगीन और हँसता हुआ देखना चाहते हो तो हिम्मत करो धुंडने की ! कभी टेबल पर , कभी बाथरूम में, कभी किचेन और कभी पेंट की जेब में मिलता है तब सोचता हूँ कि कितनी अजीब बात है कि मुझे दुनिया दिखाने वाली यह चीज खुद इतनी पारदर्शी और छोटी सी है कि बिना इसके इसे खोजना भी मेरे लिए सजा है .
चश्मा पहनने के मेरे निजी अनुभव यही हैं कि चश्मा नजर तो बदलता है मगर नजरिया नहीं . महात्मा गाँधी का चश्मा आज भी बेबस संग्रहालयों में दम तोड़ रहा है पर हमारे समाज की विडम्बना ही है आज भी उस चश्मे के पीछे वाली चमत्कारी आँखें हमारे पास नहीं हैं. आज किसी सत्ताधारी के पास वो चश्मा नहीं जो डूबता देश देख सके और उससे बचा सके . आज किसी माँ- बाप के पास वो चश्मा नहीं जो अपने बच्चों के संस्कार देख सके और इन सबसे बढकर किसी पुरुष के पास वो चश्मा नहीं जो किसी महिला को साफ़ नीयत से देख सके .
बिना चश्मों वाले इस विकृत समाज को न देख पाने का दुःख मुझे नहीं है अच्छा तो ये है कि मेरा चश्मा खो ही जाय !!
सारा समाज आज निकट दृष्टि दोष से ग्रसित है और उसे दूरदर्शी बनाने के लिए चश्मा पहनाना बहुत जरूरी है . न्यापालिका की काली पट्टी खोलकर उसे भी एक चश्मा लगाना जरूरी है . पुलिस जो नपुंसकता की दहलीज पार कर चुकी है उसे भी एक चश्मा लगाना जरूरी है .
मेरे इश्वर हमें कोई ऐसा चश्मा दो जो अपने अन्दर देखने कि कला विकसित कर सके. कोई ऐसा चश्मा जो सच को झूट से अलग कर दिखा सके , एक ऐसा चश्मा जो नजर के साथ साथ नजरिया भी बदल दे . आज संसद से लेकर समाज तक में सब लोग एक दुसरे के चश्मे फोड़ने में लगे हैं। ना जाने कितने मजबूर लोगों के रंगीन चश्मे फर्श पर टूटे हुए पड़े हैं और उन टूटे काँच के टुकड़ों से घायल इन पैरों के घाव देखने के लिए इस समाज के पास कोई चश्मा नहीं.
आधुनिकता मैं अंधे इस समाज को एक चश्मा पहनना बहुत जरूरी है।
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