Sunday, March 31, 2013

पान के ठेलों पे किस्से उठाने से नहीं लगती है आग

मेरे एक दोस्त ने चर्चा के दौरान बात उठाई  कि देश बदल  रहा है ! मैं तो कब से इस बात पर चिड़ा बैठा था मैंने तपाक से अपनी जबान की कैंची निकाली और पूछा " मियां क्या है जो इतने दिनों से बदल रहा है और मुझे खबर ही नहीं हो रही ?"

अरे आप कमाल  करते हो ! सारा देश बदलाव के दौर से गुजर रहा है और आप कहते हो क्या बदल रहा है ? अरे आप ये पूछो क्या नहीं बदल रहा?

यहाँ बता दूँ की मेरा ये दोस्त वकील है और जिरहबाजी ,पेंचबाजी में  पैदाइशी हुनर रखता है .

वकील मियां आप जिस बदलाव की बात कर रहे हो वो जब से इंसान इस दुनिया में  आया है तभी से बदस्तूर जारी है . अख़बारों के आर्काइव उठाकर देखिये तो आपको मालूम होगा की बदलाव की यह बात कब से बिना  नागा छप रही है . बस फर्क इतना है की कल आपके दादा ये बात बोलते थे आज आप बोल रहे हो .वो चौपाल पे हुक्का गुडगुडाते हुए बोलते थे ,आप सिगरेट के छल्ले उछालते हुए बडबडा रहे हो .

क्या मतलब है आपका दीपक जी ? क्या सोशल मीडिया के जरिये जागरूकता का अभियान ,चेतना का संचार ये सब आपको महज कोरी बकवास लगती है? अरे जनता आग उगल रही है ,जाग गयी है ! देखिएगा क्या होगा २0१४ का नजारा  !

अरे इसे क्या आप जागना कहते हैं ? सोशल मीडिया !! सब  अपना उल्लू सीधा करने में लगे है . मनमोहन के खिलाफ किसी ने एक पोस्ट लिखा नहीं बाकी सारे  फॉरवर्ड , शेयर और लाइक करने लग जाते हैं . सोशल मीडिया और अख़बारों ने एक मंत्र पकड़ लिया है सरकार को निकम्मी साबित करो और जनता को
भोली-भाली . देखिये वकील साहब जहाँ की सरकार चोर है वहां की जनता भी दूध की धुली नहीं हो सकती !

वकील साहब को जैसे काटो  तो खून नहीं। मुझी पर  भड़क उठे , आपका दिमाग ख़राब हो गया है , आज देश जाग रहा है तो आपको क्या तकलीफ है ? आपको शर्म नहीं आती भोली-भाली जनता पे आरोप लगते हुए !

मुझे समझ आ गया वकील साहब मुझे हराने के लिए दवाब का शबाब बिखेर रहे हैं  .

मैंने कहा मुझे कतई शर्म नहीं आ रही है . जिस देश की जनता ने ट्रेन से पंखे चुराए ,पटरियों से लोहा चुराया ,सड़क पे केले के छिलके से लेकर गड्ढे खोदने तक मैं कोई कसर नहीं छोड़ी . जंगल काट के घर के फर्नीचर बनवाए , नक़ल करके परीक्षा में पास हुए ,रिश्वत देकर सरकारी बहाल हुए . जिस जनता की बदौलत कश्मीर से  कन्याकुमारी तक भारत खंड खंड विभाजित होता रहा मुझे ऐसी नाकारा जनता के बारे में  ये शब्द बोलते हुए कोइ अफ़्सोस नहीं है।

जब मैंने गुस्सा किया तो वकील साहेब शांत  हो गए, ये उनकी खूबी है।

लेकिन भाई ये नेता लोग जो जनता का खून चूस रहे है उसका क्या? तुम्हें तो जनता की तरफ से बोलना चाहिए .

देखिये वकील साहेब मैं किसी की तरफ से नहीं बोल रहा बस एक बात बोल रहा हूँ . इस देश की जो थोड़ी बहुत प्रतिभाशाली जनता थी वो तो अमरीका चली गयी उनके तवे पे रोटियां सकने !!अब देश जाये भाड़ में .उनके देश  का आधा कटा हुआ सफ़ेद सेव खुद भी खा रहे हैं हमें भी खिला  रहे हैं . अच्छा अब चले गए ठीक है वापस भी नहीं आ रहे . अमेरिका में  मरना भी है उनको . कहते हैं देश का सिस्टम ख़राब है . अरे अगर घर का नल ख़राब हो जाये तो आप घर  छोड़ के चले जाते हो या नल ठीक करते हो ! कमाल की  बेशर्मी है! और जो लोग वापस आते हैं वो भी यहाँ से जीभ लम्बी करके वहीँ की चाट रहे होते हैं . कहते हैं ओह माई गोड वहां की सड़कें  कितनी अच्छी है ! जरा सी भी गन्दगी नहीं और ये कहते कहते मूंगफली के चार छिलके भी सड़क पे फैंक देते हैं क्यूंकि ये सड़क तो इनके बाप की है और यहाँ इनके पुट्ठों पे  डंडा मारके जुरमाना ठोकने वाला कोई नहीं।


लेकिन आप मानिये न मानिये जनता के साथ ज्यादती तो होती है यहाँ।

क्या होता है ? वकील साहेब मुंह मत खुलवाइए . यह जनता सिर्फ विरोध की राजनीती कर रही है . बचारे अरविन्द भाई हफ्ते भर से अनशन पर बैठे हैं और लोग उनका समर्थन कर रहे है सोशल मीडिया पर , कुछ रिमोट हाथ मैं लेकर अपनी बीवी से बतिया रहे हैं "See how brave  he is?" अरे एक आदमी अपनी हड्डियाँ गला रहा है , नौकरी छोड़ के बैठा है ,सबके लिए भूका प्यासा खप रहा है और यह आपकी जनता विश्लेषण करने मैं लगी है की कहीं इसमें अरविन्द का कोई राजनैतिक स्वार्थ तो नहीं।आपकी जनता से कहूँगा कि  वो भी अरविन्द भाई की तरह चार दिन भूके रहकर दिखाये और अगर दिखाने  के लिए उनके पास कुछ नहीं तो कमसे कम उसे तो उपना काम करने दें जिसकी आत्मा जाग रही है .

सरकार भी जनता से ही निकलती है और जैसी जनता होती है वैसी ही सरकार भी होती है। आज देश के चरित्र निर्माण की जरूरत है। जब तक देश की जनता का चरित्र और संस्कार ठीक नहीं बैठते तब तक कैसे सही सरकार आयेगी , अगर बदलना है तो देश के बच्चों को बदलो , उनको अंधी दौड़ से बाहर  निकालो क्यूंकि यही इस देश की भावी सरकार हैं . और बच्चों को बदलने से पहले आपको खुद बदलना होगा।

खैर हमारी चर्चा और भी लम्बी चली लेकिन में अंत तक यही दोहराता रहा

पान के ठेलों पे किस्से उठाने से नहीं लगती है आग
खुद को जलाकर रख बनाना होता है
और पान की पिचकारियों से नहीं लिखा जाता देश का मुस्तकबिल
अपनी नसों से कुछ गर्म  खून भी बहाना होता है


हैप्पी शेयरिंग

प्रेमपूर्वक- आपका दीपक












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