Saturday, May 25, 2013

पंछी बन, एक सुबह मेरा मन

पंछी बन, एक सुबह मेरा मन
उड़ता गया ,ढुंढने अद्भुत अंत गगन
ऊपर से देखा
व्यापारी बन ,बेच रहा तन मन धन
बदले में मिलते देखा घोर निराशा और क्रंदन

प्रेम वासना के बाजार में बिक रहा रुपये का सेर
और राजनीती की दौड़ में दोड़े सर्कस के सब शेर
सबने टिकट लिया पश्चिम का ,बहरी है आवाज
हुई अहिल्या कातर सी और हिजड़ा हुआ समाज

है सरे आम फुटकर में नीलामी उच्च विचारों की
कोड़े खाती लुटती पिटती है टुकड़ी संत बेचारों की
अतिभय व्यापी सत्य बेचारा ठोकर खाता घूम रहा
और व्यभिचारी असत्य रात दिन शोहरत का मुंह चूम रहा

होड़ लगी सबसे ज्यादा आगे रहने वालों की
बहुत ही ज्यादा पीछे रह गयी ममता इन इंसानों की
मैं चिल्लाया रोको रोको गलत हो रहा रोको सब
एक बाज झपट्टा मार ले चला ,बहुत हो गया मुन्ना अब





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