Monday, May 6, 2013

मैं भी बुझता हूँ थोडा सा, और थोडा जल जाता हूँ


मैं भी बुझता हूँ थोडा सा, और थोडा जल जाता हूँ
जब चूल्हे बुझ जाते हैं और आग पेट को खाती है
जब छोटी सी रोटी के टुकड़े चार कर दिए जाते हैं
सबसे बड़ा छोटा सा टुकड़ा छोटी मुनिया खाती है
क्यूँ बारिश की काली रातों में बस पानी पी सो जाती है
मैं भी रोता हूँ थोडा सा और थोडा डर जाता हूँ
जब पानी घुस जाता है घर में और नींद शिकायत करती है
कल भी कम न मिल पायेगा ,मुन्नी के पापा बदली है
चुपके से रोती  मां ,मुनिया को गोद उठाती है
खुद गीले में सो जाती पर मीठी लोरी गाती है
मैं भी होता हूँ थोडा सा तुम भी शायद होते हो
जब मुनिया का छोटा सा बस्ता ,ख्वाबों में खो जाता है
जब छोटे छोटे हाथों में बर्तन ,चूल्हा आता है
एक नन्हा सा फूल कहीं जब काँटों से छिल जाता है
तब झूटी परी कहानियों पर ,गुस्सा बहुत ही आता है
एक दिन दूर करूँगा दुःख सबके ,दिल मेरा समझाता है
फिर क्यूँ एक दिन यह दिल मेरा भूल-भाल सब जाता है

दीपक अनजान 

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