Saturday, May 11, 2013

इंसान - लघु कथा

जिंदगी उसके हाथों से फिसली जाती थी ,मगर वो देख रहा था अपने चारों ओर बिखरी हजारों अधजली लाशों को. लोगों के जिस्म से खाल लगभग उतर चुकी थी। कौन हिन्दू है कौन मुस्लमान ,जान पाना मुनासिब न था।जमीं पर फैला खून तो बस लाल ही था।

आज समझ में आता था कि  बनाने वाले ने सिर्फ इंसानों को बनाया है हिन्दू या मुसलमानों को नहीं। उसकी  एक आँख जाती रही थी और घुटने भी फट चुके थे।शरीर को और टटोला तो मालूम हुआ की रीढ़ की हड्डी भी विक्षत हो चुकी है।

धमाके  के बाद चारों और लाशें थीं और जो जिन्दा थे वो कराहकर अपने-अपने रहनुमाओं से मौत मांग रहे थे। धर्म इंसान की एकता के लिए बने थे मगर कालांतर में ये ही भाईचारे और मानवता के रास्ते की दीवार बन गए। कितना अच्छा होता ही साड़ी दुनिया का एक ही धर्म  मानव धर्म , एक ही जाती मानव जाति और एक ही कुल मानव कुल होता !

सियासत वालों ने मसले को आग दी और गैर मुल्क वालों ने हमारा ही इस्तेमाल कर हमारे आशियाने को
जला  कर खाक कर दिया।

जब बच्चा पैदा होता है तो वो न हिन्दू होता है न मुस्लमान वो सिर्फ और सिर्फ एक इंसान होता है।हिंसा कुरान या गीता के किस्सी पन्ने की किसी पंक्ति मैं नहीं लिखी ये निश्चित है!इस पर घर्म के नाम पर यह दंगे मात्र दिखाने के लिए की केवल हमारा धर्म सच्चा है . उफ़ ! कितना शर्मनाक है यह सब . आज हम सबने खुद को हिन्दू या मुस्लमान के तौर पर न देखकर बस एक इंसान  के रूप में देखा होता तो ये फिरदौस न उजड़ा होता ..........

और अब उसकी दोनों आँखें बंद हो चुकीं थीं .....


दीपक 

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