Monday, March 25, 2013

सफ़ेद खून

न जाने कौन से मजहब की मिटटी में उगा दरख़्त है वो
कि जिसकी छाँव में  ,हिन्दी और अरबी साथ खेले
न सिर्फ खिले ,कभी गुरबानी कभी प्रेयर बुदबुदाई

फिर क्यूँ कुहासे की रात में लड़े , खून भी बहाया
क्या भूल बैठे थे दरख़्त वाला रिश्ता ?
कि जिसके सख्त मोटे तने के पीछे छुपना
बस बहाना  था एक दुसरे को फिर से ढूंढने का
रूठना तो  एक इशारा प्यार को तौलने  का

क्यूँ फिर क्यूँ इतनी  रातों तक बहता रहा गर्म खून
जो लाल था पर  ज्यादा सफ़ेद था
सफ़ेद खून जो जस्बातों  के दिल को छोड़ देने से बनता है


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