लो कर लो बात ! भाषा की राजनीती फिर से शुरू हो गयी . UPSC ने अंगरेजी भाषा के पेपर में मिलने वाले अंकों को फाइनल अंको की गिनती मे शामिल करने का निर्णय लिया है। पहले अंग्रेजी का पेपर केवल पास करना होता था,जबकि अब उसे इस प्रतियोगिता मे बाकि विषयों की तरह निर्णायक स्थान मिल जायेगा यानि अब सिर्फ पास होने से काम नहीं चलेगा बल्कि प्रतियोगियों को अंग्रेजी बहुत दूर तक जाना होगा .
गौरलतब है की हमारी राजनीती मे बड़े बड़े फैसले लेने वाले राजनेताओं के लिए कोई न्यूनतम शिक्षा सीमा नहीं है वहीँ हाशिये के उस तरफ सरकारी नौकर्रियों से लेकर प्राइवेट नौकरियों की अर्जी भरने वाले युवा बड़ी बड़ी उपाधियों का बोझ लेकर सडकों की खाक छानने को विवश हैं .
क्या दोष है इन युवाओं का ? यही कि इन्होने बईमानी और भ्रष्टाचार जैसे समसामयिक विषयों को छोड़कर संस्कृति , भाषा ,इतिहास और व्यवस्था जैसे विषयों का चुनाव किया . मेरे मजहबी दोस्त जो संसद चलते हैं ,उनकी स्वयं की भाषा यदि सुनानी हो तो संसद मैं जाईये और देखिये की कैसे गंभीर विषयों की चर्चा मैं यह विष उगलते दिखाई देते हैं .
सामाजिक विषयों की बजाय जिनकी रूचि सांसारिक विषयों मैं हो ऐसे लोग मेरे देश को सम्हालते हैं और जिनकी खुद की नाक बह रही है वोह दूसरों को रुमाल रखने का प्रवचन दे रहे हैं भाई वाह ? आज तक अपने देश की भाषा लिए ये कोई नियम पारित नहीं करवा पाए , अपने देश की किसी भाषा का विकास करने की कुव्वत इनमें नहीं है। पर राजनीती तो करनी ही है . राजनीत की भाषा न सही तो भाषा की राजनीती ही सही .
तर्क है कि अंग्रेजी की अच्छी समझ से देश का विकास होगा . मैं पूछता हूँ की किसने अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्ज दिलवाया ? उसकी व्याकरण ने ? उसकी सरलता ने ? उसके वृहत शब्दकोष ने ? उसकी जरूरत ने ? नहीं शायद इनमें से कुछ भी नहीं . हर भाषा का एक मतलब होता है जैसे उर्दू का मतलब तहजीब से है ,हिंदी का मतलब संस्कृति से है वैसे ही अंग्रेजी का मतलब सामंतवादऔर साम्राज्यवाद से है . इस सामंतवादी सोच ने ही इस भाषा को अन्तराष्ट्रीय बना दिया और अब ये भाषा इतनी आजाद हो चुकी है की दूसरी भाषाओं गला काटने और उन्हें खाने का भी दुस्साहस करने लगी है। और जितने मजे लेकर युवा इसका स्वागत सत्कार कर रहे हैं वो शोचनीय है.
याद रखिये अंग्रेजी आपकी जरूरत हो सकती है , आपका जरिया हो सकती है परन्तु आपका जमीर कभी नहीं बन सकती !!
अच्छा होगा यदि हम भाषा की बजाये चरित्र पर भी थोडा ध्यान दें और बाहर के आम खाने की बजाये अपने अंगूरों को सींचें .
गौरलतब है की हमारी राजनीती मे बड़े बड़े फैसले लेने वाले राजनेताओं के लिए कोई न्यूनतम शिक्षा सीमा नहीं है वहीँ हाशिये के उस तरफ सरकारी नौकर्रियों से लेकर प्राइवेट नौकरियों की अर्जी भरने वाले युवा बड़ी बड़ी उपाधियों का बोझ लेकर सडकों की खाक छानने को विवश हैं .
क्या दोष है इन युवाओं का ? यही कि इन्होने बईमानी और भ्रष्टाचार जैसे समसामयिक विषयों को छोड़कर संस्कृति , भाषा ,इतिहास और व्यवस्था जैसे विषयों का चुनाव किया . मेरे मजहबी दोस्त जो संसद चलते हैं ,उनकी स्वयं की भाषा यदि सुनानी हो तो संसद मैं जाईये और देखिये की कैसे गंभीर विषयों की चर्चा मैं यह विष उगलते दिखाई देते हैं .
सामाजिक विषयों की बजाय जिनकी रूचि सांसारिक विषयों मैं हो ऐसे लोग मेरे देश को सम्हालते हैं और जिनकी खुद की नाक बह रही है वोह दूसरों को रुमाल रखने का प्रवचन दे रहे हैं भाई वाह ? आज तक अपने देश की भाषा लिए ये कोई नियम पारित नहीं करवा पाए , अपने देश की किसी भाषा का विकास करने की कुव्वत इनमें नहीं है। पर राजनीती तो करनी ही है . राजनीत की भाषा न सही तो भाषा की राजनीती ही सही .
तर्क है कि अंग्रेजी की अच्छी समझ से देश का विकास होगा . मैं पूछता हूँ की किसने अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा का दर्ज दिलवाया ? उसकी व्याकरण ने ? उसकी सरलता ने ? उसके वृहत शब्दकोष ने ? उसकी जरूरत ने ? नहीं शायद इनमें से कुछ भी नहीं . हर भाषा का एक मतलब होता है जैसे उर्दू का मतलब तहजीब से है ,हिंदी का मतलब संस्कृति से है वैसे ही अंग्रेजी का मतलब सामंतवादऔर साम्राज्यवाद से है . इस सामंतवादी सोच ने ही इस भाषा को अन्तराष्ट्रीय बना दिया और अब ये भाषा इतनी आजाद हो चुकी है की दूसरी भाषाओं गला काटने और उन्हें खाने का भी दुस्साहस करने लगी है। और जितने मजे लेकर युवा इसका स्वागत सत्कार कर रहे हैं वो शोचनीय है.
याद रखिये अंग्रेजी आपकी जरूरत हो सकती है , आपका जरिया हो सकती है परन्तु आपका जमीर कभी नहीं बन सकती !!
अच्छा होगा यदि हम भाषा की बजाये चरित्र पर भी थोडा ध्यान दें और बाहर के आम खाने की बजाये अपने अंगूरों को सींचें .
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