समर्पित है यह कविता उनको जो आसानी से दूसरों पर उंगली उठाते हैं पर भूल जाते है की वही कमी,वाही दोष खुद उनमे भी है शायद उनसे भी कहीं ज्यादा जिन पर वोह छींटे उड़ा रहे हैं। कबीर ने कहा है " बुरा जो देखन मैं चला ,बुरा न मिलया कोई ,जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा न कोई।"
आइये पहले खुद का मन निर्मल बनायें !!
मैं नहीं करता शिकायत ,कि बेवफा तुम हो ,
मेरी तरह इस भीड़ का एक हिस्सा ही तो तुम हो।
जो कमी तुममे है दिखती वो कहीं मुझमे भी शामिल,
जो है एक किस्सा तुम्हारा वो कहीं मुझमे भी दाखिल।
मैं जीत सकता था मगर हर बार हारा किसलिए ?
जो सवाल खुदसे थे करने तुमसे कर लिए इसलिए !
अब तो भले संग न कोई दे ,मुझे है खुद संग दौड़ना ,
सारे सवालों के जवाब मुझे है मुझमे ढूँढना।
दीपक
No comments:
Post a Comment