Saturday, May 11, 2013

यहाँ मैं क़त्ल होता हूँ हर रोज मेरी अर्थी निकलती है

यहाँ मैं क़त्ल होता हूँ हर रोज मेरी अर्थी निकलती है
कभी गरीबी , कभी शराफ़त के जुर्म में मारा जाता हूँ
मेरे फसाने यहीं ख़त्म नहीं होते
कभी भूख ,कभी बेकारी के जुर्म में मारा जाता हूँ

लोग पूछते हैं कि सड़क क्या तेरे बाप की है ?
फुटपाथ पर सोने के जुर्म में  मारा जाता हूँ।।

मैं परिंदा न बन सका फिर भी ख्वाबों में उड़ता हूँ,
सपनों की चाशनी में डुबो डुबो कर मारा  जाता हूँ।।

हद तो ये है की पूरी तरह मरने भी नहीं देते,
जिंदगी की उम्मीद के नीचे हर बार मार जाता हूँ।।

दीपक






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